“भीगी बिल्ली बने आईपीएस, नेता जी ने पिल पड़े साहब बहादुर पर.. लंबी मूंछ, चौड़ा रुतबा… लेकिन जुबान रही पूरी तरह लॉक…

जनघोष-ब्यूरो
फिल्मों में आपने पुलिस अफसरों को खद्दरधारियों से आंखों में आंखें डालकर भिड़ते देखा होगा, मगर असल ज़िंदगी में तस्वीर कुछ और ही होती है। हरिद्वार में ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला, जहां खुद को जांबाज और रौबदार समझने वाले एक आईपीएस अफसर की सारी बहादुरी, सारी गरज और सारा रुतबा एक झटके में ढेर हो गया।

मामला था गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के दयानंद स्टेडियम स्थित हेलीपैड का। मौका था मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के हरिद्वार दौरे का। वीआईपी माहौल, खाकी का पहरा और नेताओं की मौजूदगी—सब कुछ परफेक्ट था। तभी अचानक एंट्री होती है एक पूर्व विधायक की, और देखते ही देखते साहब बहादुर की पतलून ढीली पड़ जाती है।

कथित तौर पर पूर्व विधायक ने आव देखा न ताव और सीधे आईपीएस अफसर पर जुबानी हमला बोल दिया। खरी-खोटी, भद्दी गालियां और सत्ता का पूरा प्रदर्शन। हैरानी इस बात की नहीं कि नेता जी भड़के, हैरानी इस बात की थी कि रोज़ मातहतों पर रौब झाड़ने वाले आईपीएस की जुबान से विरोध का एक शब्द तक नहीं निकला। न आंख तरेरी, न तेवर बदले—बस सिर झुका और कान खुले।

अगर मौके पर मौजूद आला अफसर बीच-बचाव को आगे न आते तो बात गिरेबान पकड़ने तक भी पहुंच सकती थी। आला अफसरों ने जैसे-तैसे हालात संभाले, लेकिन नेता जी की जुबान तब तक रुकने के मूड में नहीं थी। गालियों की फुहार ऐसी थी कि सुनने वालों के कान सुन्न पड़ गए।

अब सवाल उठा—आखिर मामला क्या था? पड़ताल में सामने आया कि कुछ दिनों पहले पूर्व विधायक एक युवक की पैरवी लेकर साहब बहादुर के पास पहुंचे थे। लेकिन साहब ने पैरवी को तवज्जो देने की बजाय युवक की ‘क्लास’ लगा दी। इसी बात का गुबार सीधा हेलीपैड पर फूट पड़ा।

दिलचस्प ये भी रहा कि पूरे घटनाक्रम के दौरान पुलिस फोर्स, भाजपा के छोटे-बड़े नेता और प्रशासन के आला अफसर मौके पर मौजूद थे। सब देख रहे थे—कैसे साहब बहादुर, नेता जी के सामने भीगी बिल्ली बने खड़े रहे। दबी जुबान में कई ये कहते भी सुने गए कि गलती साहब की ही थी।

महकमे में यह खबर आग की तरह फैल गई। छोटी-छोटी बातों पर अधीनस्थों को हड़काने वाले साहब बहादुर का यह अवतार देख पुलिसकर्मियों के चेहरे पर हल्की मुस्कान तैर गई। आखिरकार, जो रोज़ खाकी का रुतबा दिखाता था, वो सत्ता के सामने सिमटता नज़र आया।

कहते हैं ना—रुतबा कुर्सी से चलता है, खाकी से नहीं।
हरिद्वार का यह वाकया उसी कहावत पर पूरी तरह फिट बैठता है।

Ad

सम्बंधित खबरें