लोकसभा चुनाव 2024: सियासी भविष्य की उम्मीदों वाला यूपी

रंजीव

सियासत में एक पुरानी कहावत प्रचलित है कि देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी का रास्ता यूपी से होकर ही जाता है। ये यूं ही नहीं है। कुछेक अपवाद छोड़ दें तो अब तक यूपी ने देश को अधिकतर प्रधानमंत्री दिए भी हैं। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी की 80 सीटें, कहावत को बल देती हैं। 2024 के लोकसभा चुनावों की घोषणा के ही देश की निगाहें, यूपी पर टिक गई हैं।

भाजपा नीत गठबंधन यानि एनडीए और इंडिया गठबंधन भी यूपी से आस लगाए हुए है। जाहिर है, जिस गठबंधन के पास यूपी से ज्यादा सीटें होंगी, देश की बागड़ोर उसी के पास जाएगी। यूपी में इंडिया गठबंधन का मतलब समाजवादी पार्टी और एनडीए के मायने भाजपा। यह मानने में किसी को भी कोई गुरेज नहीं है कि यूपी में भाजपा-सपा में ही मुख्य मुकाबला होने जा रहा है।

यूपी में 2017 से ही भाजपा की सरकार है। समाजवादी पार्टी के हाथ से सत्ता गई तो फिर 2022 में भी वह उसे हासिल नहीं कर सकी। हां, यह जरूर है कि समाजवादी पार्टी ही यूपी का एकमात्र दल है जिसने हमेशा भाजपा से डटकर चुनाव में मुकाबला किया। भाजपा की नीतियों-कार्यक्रमों का सर्वाधिक विरोध यही पार्टी करती भी रही है। सपा के विधायक भी एकजुट रहे हैं पर पहली बार भाजपा ने समाजवादी पार्टी में अब तक की सबसे बड़ी फूट डाली और राज्यसभा चुनाव में उसके विधायकों से क्रास वोटिंग कराकर यूपी की राजनीति में अपनी मजबूती दिखा दी। समाजवादी पार्टी के लिए यह अब तक का सबसे बड़ा झटका है।
सबका इत्तेफाक है कि यूपी से देश को बड़ा संदेश मिलता है, यह बीते दिनों तब साबित भी हुआ जब समाजवादी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन हुआ तो दिल्ली, गुजरात, गोवा, हरियाणा आदि राज्यों में इंडिया गठबंधन को मजबूती मिली और आम आदमी पार्टी ने भी तालमेल करने में तनिक भी हिचक नहीं दिखाई।

 

 

2019 में हुए लोकसभा चुनाव में यूपी की 80 सीटों पर हुए चुनाव में एनडीए गठबंधन ने 64 सीटें जीतीं थीं जिसमें 62 अकेले भाजपा ने जीतीं और दो सीटों पर उसके गठबंधन के सहयोगी अपना दल एस ने जीत दर्ज की थी। समाजवादी पार्टी ने 5 सीटों पर चुनाव जीता था और कांग्रेस मात्र एक सीट ही जीत पाई थी। बसपा ने जरूर 10 सीटें जीतीं थीं लेकिन इस चुनाव में सपा-बसपा व रालोद ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव की सबसे दिलचस्प पहलू यही था कि सपा को ज्यादा सीटें नहीं मिल सकीं थीं और बसपा ने गठबंधन का फायदा उठा लिया था। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के पक्ष में 18.11 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि बसपा को 19.43 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। तब, यह आकलन किया गया था कि बसपा के वोट समाजवादी पार्टी को ट्रांसफर नहीं हुए थे जिस वजह से उसे नुकसान उठाना पड़ा जबकि सपा के वोट बसपा उम्मीदवार में ट्रांसफर हुए थे। रालोद को 1.69 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। इसके बरअक्स भाजपा का वोट प्रतिशत 49.98 था और उसके सहयोगी दल अपना दल एस को 1.21 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। कांग्रेस का वोट शेयर मात्र 6.36 प्रतिशत ही था।

बाद में रामपुर, आजमगढ़ व मैनपुरी में हुए उपचुनाव में भी भाजपा ने दो सीटें जीत लीं थी। ये तीनों सीटें समाजवादी पार्टी के पास थीं जिसमें रामपुर से आजम खां, मैनपुरी से मुलायम सिंह यादव व आजमगढ़ से अखिलेश यादव चुनाव जीते थे। आजम खां व अखिलेश ने इस्तीफा दिया था जबकि मुलायम सिंह यादव के निधन से उनकी सीट रिक्त हुई थी। अकेली मैनपुरी सीट ही उपचुनाव में समाजवादी पार्टी जीत पाई। वह भी तब जब दिवंगत मुलायम सिंह यादव की बहू डिंपल यादव मैदान में उतरीं। बाकी दोनों सीटें भाजपा की झोली में चली गई थीं।

2019 के मुकाबले 2024 के सियासी समीकरण थोड़ा जुदा हैं। तब, विपक्षी गठबंधन भी नहीं था और मोदी सरकार के भी 5 साल ही हुए थे। जनता की उम्मीदें यह सोचकर हिलोरें मार रहीं थीं कि अगर मोदी को एक और कार्यकाल मिलता है तो वह कुछ बेहतर करेंगे। अब मोदी सरकार के 10 साल हो चुके हैं इसलिए भाजपा के सामने भी तमाम चुनौतियां हैं।

भाजपा यह नहीं कह सकती कि वह 2024 में भी आसानी से सत्ता पा जाएगी इसीलिए उसने धुव्रीकरण का कोई भी मौका नहीं छोड़ा है। राम मंदिर निर्माण का ट्रंप कार्ड भी उसने चल दिया है। इसके असर का आकलन चुनाव नतीजों से ही होगा। अलबत्ता महंगाई और बेरोजगारी जैसे मसलों पर लगातार उछल रहे सवाल भी भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है। धर्म के साथ ही जाति के वोटों पर भी उसका फोकस है। यूपी सरकार में हालिया मंत्रिमंडल विस्तार में जिन 4 चेहरों को शामिल किया गया है, उसपर गौर करें तो साफ नजर आता है कि यहां जातीय समीकरण का कील-कांटा दुरुस्त करने की भाजपा ने कवायद की है। राजभर, लोनिया, दलित व ब्राह्मण चेहरे काे मंत्री बनाना चुनावी ही हिकमत अमली मानी जा रही है।
इसमें कोई शक-शुब्हा नहीं है कि 2024 में भी भाजपा यूपी में समाजवादी पार्टी से मुकाबला करने जा रही है। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने कांग्रेस से गठबंधन कर वोटों का बिखराव रोका है। कांग्रेस भी जानती थी कि अगर वह यूपी में अकेले चुनाव लड़ती है तो उसकी झोली खाली ही रहने वाली है इसलिए उसने समाजवादी पार्टी की ओर से 17 सीटों का आफर मान लिया।

कांग्रेस ने कोई दरियादिली नहीं दिखाई है बल्कि यह उसकी मजबूरी भी थी क्योंकि उसे मालूम है कि यूपी में कांग्रेस का संगठन उतना मजबूत नहीं है जितना की समाजवादी पार्टी का। उसपर अखिलेश की पीडीए की मुहिम पर भी उसे रंग चढ़ता दिखाई दे रहा है। पिछड़ा, दलित व अल्पसंख्यकों यानि पीडीए की वकालत करते अखिलेश ने सामाजिक न्याय की लड़ाई को धार दी है और जातीय जनगणना की अपनी मांग इस तबके को समझाने पर खासा जोर लगा दिया है।

ऐसा नहीं है कि समाजवादी पार्टी 80 सीटें जीतने जा रही है। यह जरूर है कि इंडिया गठबंधन में यूपी में अखिलेश का अपर हैंड है मगर उनके सामने भी भाजपा से लड़ना उतना आसान नहीं है जितना समझा जा रहा है। भाजपा का सांगठनिक ढांचा बूथ स्तर पर बहुत मजबूत है और वह पिछले 5 साल से इसी पर काम कर रहे हैं।

बहरहाल उत्तर प्रदेश में धरातल पर दो ही माहौल हैं। एक एनडीए और दूसरा इंडिया गठबंधन। बसपा कहीं नजर आती दिख नहीं रही है। सचाई यही है कि यूपी के मतदाता एनडीए व इंडिया गठबंधन में बंटे हुए हैं। समाजवादी पार्टी या इंडिया गठबंधन की बड़ी चुनौती यह भी है कि वह महंगाई, बेरोजगारी आदि मुद्दों को उठा तो रही है मगर उसके खिलाफ फिजा तैयार करने में अभी तक कामयाब नहीं हो पाई है। चुनाव में ऐसा माहौल बन जाए तो कहा नहीं जा सकता।

एनडीए व इंडिया गठबंधन दोनों ही 2024 के लोकसभा चुनाव में यूपी से उम्मीदें लगाए हुए हैं। यूपी में ही सबसे ज्यादा घमासान भी है। दोनों गठबंधन की चिंता और चिंतन में यूपी का होना यह यह बताने के लिए भी काफी है कि एक बार फिर यूपी ही देश को प्रधानमंत्री देने वाला है। यह भविष्य तय करेगा कि यूपी से एनडीए जीतेगा या इंडिया गठबंधन पर यह स्पष्ट है कि 2024 लोकसभा चुनाव का असली रण यूपी की सरजमीं पर ही होगा।

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